भारत तेजी से आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है. 2030 तक 70 खरब डॉलर (करीब 581 लाख करोड़ रुपए) के अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ देश दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी में है. लेकिन इस आर्थिक विकास के समानांतर, सामाजिक और नागरिक आचार-व्यवहार में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखता. इंडिया टुडे ग्रुप और हाउ इंडिया लिव्ज द्वारा किए गए एक विशेष सर्वेक्षण से इस विरोधाभास की तस्वीर और स्पष्ट हो जाती है.
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21 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के 98 जिलों में अपनी तरह का ऐसा पहला जनमत सर्वेक्षण किया. इस सर्वेक्षण में 9,188 लोगों से उनकी आय या संपत्ति के बारे में नहीं बल्कि शालीन व्यवहार, हमदर्दी और नैतिकता के बारे में बातचीत की गई, जिसे हम सकल घरेलू व्यवहार (जीडीबी) कह रहे हैं. इसमें 30 अलग-अलग सवालों का जवाब लिया गया. इन सवालों को नागरिक व्यवहार, सार्वजनिक सुरक्षा, स्त्री-पुरुष भेद, विविधता और भेदभाव को केंद्र में रखकर पूछा गया है.
क्या कहता है सर्वेक्षण?
- 61% लोग घूस देने को तैयार हैं यदि इससे उनका काम आसानी से हो सकता है.
- 52% लोग टैक्स बचाने के लिए नकद लेन-देन को सही मानते हैं.
- 69% लोग मानते हैं कि घर के अहम फैसले पुरुषों को ही लेने चाहिए.
- लगभग आधी आबादी अंतर-धार्मिक या अंतर-जातीय विवाह के खिलाफ है.
- 60% लोग नहीं चाहते, घर के आसपास आवारा कुत्ते हों.
क्या सिर्फ आर्थिक विकास काफी है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'विकसित भारत' का सपना सिर्फ आर्थिक तरक्की से नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव से भी जुड़ेगा. भारत के संविधान में 42वें संविधान संशोधन के जरिए लाए गए अनुच्छेद 51ए के तहत नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को परिभाषित किया गया है, जिनमें सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा, हिंसा से दूर रहना, 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए पढ़ाई अनिवार्य करने, स्त्री-पुरुष समानता और पर्यावरण संरक्षण जैसी बातें शामिल हैं. हालांकि, इन सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है.
अन्य देशों से क्या सीख सकते हैं?
भारत कई देशों से नागरिक आचार-व्यवहार सुधारने को लेकर सबक ले सकता है.
- सिंगापुर: कुछ दशकों में तीसरी दुनिया से पहली दुनिया की महाशक्ति बनने के पीछे न सिर्फ आर्थिक नीतियां बल्कि नागरिक अनुशासन और जवाबदेही की संस्कृति भी प्रमुख कारण रही.
- दक्षिण कोरिया और जापान: यहां आर्थिक विकास के पीछे जिम्मेदार नागरिक व्यवहार और पारदर्शी प्रशासन की बड़ी भूमिका रही है.
- स्विट्जरलैंड और जर्मनी: सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा, समय की पाबंदी और उच्च स्तर की नागरिक जिम्मेदारी ने इन देशों को संपन्न और अनुशासित समाज बनाया है.
भारत में सुधार की दिशा
भारत में सामाजिक और नागरिक सुधारों के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं.
- कानूनों का सख्ती से पालन: जैसे न्यूयॉर्क में 1986 में सार्वजनिक परिवहन में थूकने को गैर-कानूनी बनाया गया, भारत में भी इसी तरह के कानून लागू किए जाने चाहिए.
- डिजिटल भुगतान को बढ़ावा: भारत में डिजिटल लेन-देन बढ़ रहा है. दिल्ली में 96% लोग इसे प्राथमिकता देते हैं, जिससे पारदर्शिता बढ़ती है और भ्रष्टाचार में कमी आती है.
- महिला सशक्तिकरण: नॉर्वे ने कॉर्पोरेट बोर्डों में 40% महिला भागीदारी अनिवार्य की, जिससे वहां आर्थिक प्रदर्शन बेहतर हुआ. भारत भी महिला श्रमशक्ति भागीदारी बढ़ाकर जीडीपी में 27% तक की वृद्धि कर सकता है.
भारत में महिला श्रमशक्ति भागीदारी दर
भारत में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर लगभग 41 फीसदी है, जो चीन (60 फीसदी) और अमेरिका (58 फीसदी) से काफी नीचे है. 2018 में मैकिन्जी ऐंड कंपनी के अध्ययन का अनुमान है कि भारत की जीडीपी 27 फीसद तक बढ़ सकती है, बशर्ते देश अपने महिला कार्यबल भागीदारी को पुरुषों के बराबर बढ़ा दे.
सुरक्षा बड़ा मसला सुरक्षा का
सर्वेक्षण के अनुसार, 86% लोग सार्वजनिक परिवहन में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं, लेकिन लिंग आधारित पूर्वाग्रह का डर बना रहता है। जापान का उदाहरण देखें तो वहां महिलाएं किसी भी समय सार्वजनिक स्थानों पर बेझिझक आ-जा सकती हैं. यह सुरक्षा व्यवस्था सीधे आर्थिक भागीदारी को बढ़ावा देती है. महिलाएं बिना किसी डर के देर रात तक काम कर सकती हैं, शाम की कक्षाओं में पढ़ सकती हैं, या सामाजिक आयोजनों में भाग ले सकती हैं, जिससे उनके लिए अधिक अवसर खुलते हैं. सुरक्षा का आर्थिक प्रभाव इतना व्यापक है कि मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार, अगर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जाए, तो 2025 तक क्षेत्र के वार्षिक जीडीपी में 45 खरब डॉलर (12%) की वृद्धि हो सकती है.
93% लोगों का मानना है कि बेटियों को भी बेटों की तरह समान शिक्षा के अवसर मिलने चाहिए, और 84% लोग महिलाओं के घर से बाहर काम करने के समर्थन में हैं. ये प्रगतिशील विचारधाराएँ समाज में गहराई से जमीं पितृसत्तात्मक सोच के साथ-साथ मौजूद हैं. दिलचस्प रूप से, 69% लोग अब भी मानते हैं कि बड़े घरेलू फैसलों का अंतिम अधिकार पुरुषों के पास होना चाहिए. इसी तरह, 83% लोगों का कहना है कि पति का पत्नी पर हाथ उठाना गलत है, लेकिन 14% महिलाएं इसके उलट सोच रखती हैं, जो इस बात का संकेत है कि पितृसत्तात्मक मूल्य कितने गहरे तक जड़ें जमा चुके हैं। यह सिर्फ सांस्कृतिक नहीं, बल्कि आर्थिक मजबूरियों से भी जुड़ा मसला है.
एक और चौंकाने वाला आंकड़ा देखें
84% लोग दावा करते हैं कि वे हिंसक अपराध की रिपोर्ट थाने में दर्ज करेंगे. बावजूद इसके, दिल्ली जैसे शहरों में एफआईआर दर्ज कराने की दर काफी कम है. उदाहरण के तौर पर, केवल 7.2% लोग ही चोरी जैसे अपराधों की औपचारिक रिपोर्ट दर्ज कराते हैं. यह विरोधाभास स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि लोगों का कानून व्यवस्था पर भरोसा कमजोर है.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, डेनमार्क, फिनलैंड, सिंगापुर और न्यूजीलैंड दुनिया के सबसे कम भ्रष्टाचार वाले देशों में शामिल हैं. भले ही इनकी कुल आबादी भारत के पंजाब के बराबर हो, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में ये शीर्ष 25 देशों में आते हैं, जिसमें सिंगापुर और डेनमार्क शीर्ष 10 में शामिल हैं.
सर्वेक्षण में चौंकाने वाली बातें सामने आईं
सर्वेक्षण के आंकड़ों से यह पता चलता है कि 85 फीसद लोग बस-ट्रेन वगैरह में बिना टिकट सफर को गलत मानते हैं. फिर भी, भारतीय रेलवे में ही 2023-24 में बिना टिकट यात्रा के 3.6 करोड़ मामले दर्ज हुए, जिसकी वजह से 2,231.74 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया. कूड़ा-कचरा फैलाने, बिना टिकट यात्रा या स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी के खिलाफ व्यक्त विचारों और व्यवहार में भारी फर्क जागरूकता के बजाए अमल करवाने वाले तंत्र की नाकामी को दर्शाता है. इसलिए, असली चुनौती नैतिकता का पाठ पढ़ाना नहीं, बल्कि जवाबदेही तय करना है.
समाज को आईना दिखाता सर्वेक्षण
इस सर्वेक्षण के नतीजे हमें बताते हैं कि आर्थिक तरक्की और नागरिक आचार-व्यवहार के बीच एक गहरी खाई बनी हुई है. भारत को सिर्फ आर्थिक महाशक्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक रूप से भी विकसित राष्ट्र बनने की जरूरत है. यह तभी संभव है जब नागरिक चेतना, जिम्मेदारी और नैतिकता को समान रूप से प्राथमिकता दी जाए.
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