Prayagraj Maha Kumbh:प्रयागराज में महाकुंभ की तैयारियां जोरों पर हैं. 13 जनवरी को होने वाले पहले और बेहद पवित्र स्नान को लेकर सभी में उत्साह है. सबसे ज्यादा उत्साहित हैं नागा साधु. संगम में सबसे पहले पवित्र जल में यही नहाते हैं. इसे अमृत स्नान कहा जाता है. इस स्नान को शाही स्नान कहा जाता है. रथ पर, घोड़े पर बैठे नागा साधु, नंग-धड़ंग तलवार, त्रिशूल और झंडा लेकर संगम की तरफ दौड़ते नागा साधुओं का परम आनंद देखने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए लाखों की भीड़ होती है. इस नजारे को देश-दुनिया से आए लोग अपने कैमरों में कैद करते हैं.
अब सवाल ये उठता है कि ये नागा साधु हैं कौन? कहां रहते हैं? ऐसे क्यों रहते हैं? भयंकर ठंड में भी ये निर्वस्त्र कैसे रहते हैं? क्या है इन सबके पीछे का दर्शन? क्या है मान्यताएं? कैसे बनते हैं नागा साधु? कौन इसके होता है योग्य? क्या है प्रक्रिया? इन सभी सवालों का जवाब अपनी कुटिया में धुनि रमाए नागा साधु दिगंबर मणिराज पुरी दे रहे हैं. यूपी Tak से खास बातचीत में नागा साधु ने बताई पूरी प्रक्रिया.
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देह पर भस्म, खुले आसमान में मस्त नागा बाबा
13 साल की उम्र तक उत्तराखंड के पहाड़ों में रहने वाले मणिराज पुरी ने नागा साधुओं की संगत पकड़ ली. नागा साधु बनने की तीन प्रक्रियाओं से गुजरे और अब पूर्ण नागासाधु हैं. 13 साल की उम्र में घर छोड़ दिया, नागा साधुओं के संगत में पढ़ाई लिखाई भी की. स्नातक की शिक्षा पूरी की. फिर नागा साधु बनने की प्रक्रिया पूरी कर सनातन के उद्देश्य और जन्म कल्याण के लिए सब कुछ त्याग कर निकल पड़े.
कब से शुरू हुई नागा परंपरा ?
आठवीं शताब्दी में जब सनातन धर्म पर कुठाराघात हो रहा था. मंदिरों को खंडित किया जा रहा था तब आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी. वहीं से सनातन धर्म की रक्षा के लिए शास्त्र के साथ शस्त्र को भी जरूरी समझा गया. तब उन्होंने अखाड़ा परंपरा शुरू की जिसमें धर्म की रक्षा के लिए मर-मिटने वाले संन्यासियों को ट्रेनिंग दिया जाने लगा. नागा साधु उन्हीं अखाड़ों के धर्म रक्षक कहे जाते हैं.
क्यों बनते हैं नागा साधु ?
नागा साधु मणिराज पुरी ने कहा कि उनका उद्देश्य सिर्फ सनातन की रक्षा करना है. आदि शंकराचार्य के वक्त से बनी नागा साधुओं की यह शाखा सनातन पर आए किसी भी खतरे से बचने के लिए है. हमारी हथियारबंद सेना है. मुगलों के समय अपने शस्त्रों के साथ इन लोगों ने लोहा लिया था जब वह सनातन के खात्मे को उतारू थे.
गौरतलब है कि ज्यादातर नागा साधु शिव और शक्ति के उपासक होते हैं. ये साधु एक-एक कर अपने परिवार, रिश्तेदार और दुनिया की तमाम विलासता को त्याग देते हैं. तब जाकर उन्हें नागा की उपाधि मिलती है.
नागाओं की तीन कैटेगरी
नागा साधुओं में भी तीन कटेगरी होती है. एक जो बिना सिले वस्त्र में रहते हैं. दूसरे जो लंगोट में रहते हैं इन्हें नागा दिगंबर साधु कहते हैं. और तीसरे वे जो बिल्कुल निर्वस्त्र रहते हैं. इन्हें श्री दिगंबर कहते हैं.
अलग-अलग कुंभ के साधुओं के अलग नाम
हर कुंभ के मेले में दीक्षा देकर और कठोर व्रत के साथ नागा साधु बनाए जाते हैं. प्रयागराज में दीक्षा लेने वालों को नागा साधु, उज्जैन में दीक्षा लेने वालों को खूनी नागा, नासिक में दीक्षा लेने वालों को खिचड़िया नागा और हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को बर्फानी नागा कहा जाता है. इन नागा साधुओ में कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे पद होते हैं. इनमें सचिव को सबसे अहम पद माना जाता है. ये पद साधुओं को दीक्षा देने के बाद उनके अनुभव और वरीयता के आधार पर दिए जाते हैं. नागा अपने अखाड़ों के आश्रम और मंदिरों, पहाड़, गुफाओं या कंदराओं में जीवन बिताते हैं. अखाड़े के आदेश मिलते ही ये चल पड़ते हैं.
इतनी सर्दी में निर्वस्त्र कैसे रह लेते हैं नागा साधु
कड़ाके की ठंड में शरीर पर शमशान का भस्म मलते हुए आज तक से बातचीत में नागा साधु मणिराज पुरी ने बताया उन्हें ठंड नहीं लगती. इसलिए नहीं लगती क्योंकि उनका शरीर और जीवन उस बच्चों के समान है जैसे वो मां के गर्भ में होता है. यानि जिस गर्भ की झिल्ली में बच्चा होता है.. नागा साधु बनने की प्रक्रिया में शरीर भी इस स्थिति में चला जाता है. यानी ईश्वर नाम रूपी झिल्ली से वह घिर जाता है. तब गर्मी ठंड अग्नि ताप संताप किसी का असर नहीं होता है.
ऐसे बनाए जाते हैं नागा साधु
नागा साधु बनाने की एक पूरी प्रक्रिया है. ये इतना कठिन होता है कि सब इसे पूरा नहीं कर पाते हैं. इसके लिए दृढ़ संकल्प होना जरूरी है. इनकी शुरूआत की इनके अंत से होती है. इनके अध्याय की शुरुआत ही उनके अंत से होती है. सबसे पहले अपने शरीर का अंतिम संस्कार और पिंडदान करना होता है. यानी इस नश्वर संसार से अपना परिचय एक भौतिकवादी के रूप में खत्म कर आध्यात्म की तरफ बढ़ना होता है. इसके बाद संन्यास की दीक्षा दी जाती है. इस दीक्षा की भी कई बेहद कठिन प्रक्रिया होती है. इससे गुजरने के बाद सबसे आखिर में नंबर आता है काम वासना पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया. इसके लिए नागा साधुओं में लिंग तोड़ की प्रक्रिया अपनाई जाती है.
क्या है टांगतोड़ या लिंग तोड़ प्रक्रिया
तमाम मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इस प्रक्रिया बेहद दर्दनाक होती है. इसमें दीक्षा ले चुके साधु को खंभे के सहारे खड़ा कर उसके ऊपर पवित्र जल छिड़का जाता है. फिर दीक्षा देने वाले सन्यासी उस युवक के लिंक को पकड़कर तीन बार तेज झटके से खींचते हैं जिससे अंदर से नशें टूट जाती हैं. ये प्रक्रिया दर्दनाक होता है जिसके लिए शुद्ध घी पीने से लेकर दवाओं और कई बार तेज दर्द पर इलाज का भी सहारा लेना पड़ता है.
नागा साधु ही नहीं बल्कि होती हैं नागा साध्वियां
केवल नागा साधु ही नहीं बल्कि नागा साध्वियां भी होती हैं. इस बार महाकुंभ में नागा साध्वियों का दल भी आया है. महिला नागा साधुओं की परंपरा कोई नई नहीं है बल्कि यह परंपरा भी उतनी ही पुरानी है जितनी कुंभ में पुरुष नागा साधुओं की परंपरा. माना जाता है कि पुरुष नागा साधुओं के साथ ही महिला संन्यासियों का भी स्नान होता रहा है, लेकिन मर्यादा के साथ. महिला सन्यासिनियों की अध्यक्ष महंत दिव्या गिरी ने बताया कि महिला नागा साध्वियों की परंपरा रही है पहले यह जूना अखाड़े का ही हिस्सा होती थीं, लेकिन अब एक अलग शाखा बनाई गई है.
अति गोपनीय तरीके से होती है महिला नागा साधुओं की दीक्षा
जूना अखाड़े के जो संत महंत या साधु हैं सब कुछ ऐसा ही महिला संन्यासियों के साथ भी है, लेकिन नागा साधु जिस वेशभूषा में होते हैं महिला नागा संन्यासी ऐसे नहीं रहती हैं. हालांकि अति गोपनीय तरीके से नागा साध्वियों की दीक्षा होती है. यहां पुरूषों का जाना वर्जित होता है.
इनपुट: कुमार अभिषेक
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