अस्सलाम वालेकुम... मेरा नाम नजाकत अहमद शाह है. मैं हालवन गनगड में रहता हूं और पेशे से एक टूरिस्ट गाइड हूं. सर्दियों में मैं छत्तीसगढ़ जाकर शाल बेचता हूं, लेकिन बाकी महीनों में कश्मीर में टूरिस्टों को घुमाता हूं. 17 तारीख को छत्तीसगढ़ के चिरमिरी से चार कपल और उनके तीन बच्चे यानी कुल 11 लोग कश्मीर घूमने आए थे. हमने दो इनोवा गाड़ियां लेकर उन्हें जम्मू से रिसीव किया और श्रीनगर, गुलमर्ग, सोनमर्ग घुमाते हुए आखिर में पहलगाम लाए.
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पहलगाम को हमने यात्रा का अंतिम पड़ाव इसलिए रखा था, क्योंकि मैं उन्हें अपने घर लाना चाहता था. कश्मीर की मेहमाननवाज़ी दिखाने के लिए. हम होटल एक्सीडेंट में रुके और अगली सुबह पोनी राइड के लिए 'मिनी स्विट्ज़रलैंड' यानी बासन की ओर रवाना हुए. दोपहर करीब डेढ़-दो बजे हम बासन के मैदान में थे, मैगी खा रहे थे, फोटोग्राफी कर रहे थे.
'पहले लगा पटाखे हैं, फिर समझ आया मौत है...'
उसी दौरान दो-तीन फायर की आवाजें आईं. लकी भाई ने मुझसे पूछा, "ये क्या आवाज़ है?" मैंने कहा, शायद बच्चे पटाखे फोड़ रहे हैं. लेकिन फायरिंग तेज़ होती गई, तब समझ आया कि कुछ गंभीर है. वहां लगभग दो हजार टूरिस्ट मौजूद थे. अफरा-तफरी मच गई. लोग जमीन पर लेट गए. मैं भी दो बच्चों-लकी के बेटे और टीटू की बेटी को लेकर नीचे लेट गया.
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'बच्चों को सीने से लगा लिया... और भाग निकले'
जब फायरिंग ज़िप लाइन की तरफ बढ़ी, तब पीछे की जाली काटकर मैं उन बच्चों, लकी की बेटी और बाकी गेस्ट्स को लेकर वहां से भाग निकला. किसी तरह हम पहलगाम तक पहुंचे, उन्हें इनोवा में बैठाकर होटल पहुंचाया. बाकी जो पीछे रह गए थे, उन्हें भी लाकर होटल सुरक्षित पहुंचाया. अल्लाह का शुक्र है, हमने अपने 11 गेस्ट्स को सही-सलामत श्रीनगर एयरपोर्ट तक पहुंचाया.
उस पल ऐसा लग रहा था जैसे मौत सिर पर खड़ी है. मैंने फोन निकाला, सोचा अपनी दो बेटियों से आख़िरी बार बात कर लूं... लेकिन नेटवर्क ही नहीं था. उस वक़्त लकी भाई की आवाज़ कानों में गूंजी- "भैया मेरे बच्चे को बचा लो."
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"मेहमान तो बच गए, पर भाई नहीं..."
उस हमले में मेरा कज़न भाई आदिल हुसैन शाह शहीद हो गया. वो घोड़े चलाया करता था. बाकी हमारे भाई होटल में काम करते हैं, मैगी बेचते हैं या गाइडिंग करते हैं. हमारा पूरा जीवन टूरिज्म पर टिका था. अब न जान सुरक्षित है, न रोज़गार. जब बच्चों को गोद में लिया तो बस एक ही ख्याल था-अगर मुझे गोली लगे भी, तो इन मासूमों को कुछ नहीं होना चाहिए. क्योंकि मैं खुद भी बाप हूं. इंसानियत की यही पुकार थी उस दिन. लेकिन बासन की वो वादी इंसानियत का कत्लगाह बन चुकी थी.
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