हरियाणा में कौन बन सकता है किंग? क्या निर्दलीय, कांग्रेस की जीत के सपने पर करेंगे चोट?

अभिषेक

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Haryana Election: हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए 5 अक्टूबर को वोटिंग होनी है. इससे पहले बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने स्टार प्रचारकों को मैदान में उतार कर खूब प्रचार कराया. 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से उत्साहित कांग्रेस 10 साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद वापसी करने की कोशिश कर रही है. दूसरी ओर बीजेपी 10 साल की सत्ता विरोधी लहर और किसानों/पहलवानों/अग्निवीरों के विरोध से जूझ रही है. हालांकि इसके बाद भी बीजेपी को ये उम्मीद है कि, आंतरिक गुटबाजी और निर्दलीय उम्मीदवार, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को विफल कर देंगे. 

हरियाणा विधानसभा चुनाव को चुनावी विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने पार्टियों की मजबूती, छोटे दलों का प्रभाव और निर्दलीय उम्मीदवारों के विश्लेषण से समझाया है. आइए आपको बताते हैं. 

वैसे आपको बता दें कि, 2009 और 2019 में हरियाणा के मतदाताओं ने स्पष्ट जनादेश नहीं दिया. इन चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी ने क्रमशः 40 सीटें जीतीं जबकि 90 सीटों वाले विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 46 है. कांग्रेस ने 2009 में निर्दलीय और छोटे दलों की मदद से सरकार बनाई, वही 2019 में बीजेपी ने दुष्यन्त चौटाला की जननायक जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया. 

हरियाणा के बहुकोणीय मुकाबले को समझिए 

हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही कई पार्टियां जोर आजमाइश कर रही है.  इंडियन नेशनल लोकदल-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन, जननायक जनता पार्टी-आजाद समाज पार्टी गठबंधन और आम आदमी पार्टी ने 90 में से अधिकांश सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी जैसी अन्य छोटी पार्टियां भी कुछ सीटों पर प्रभाव के साथ मैदान में हैं. अगर नतीजों में किसी भी पार्टी को बहुमत का आंकड़ा नहीं मिलता है तो छोटे दल और निर्दलीय किंगमेकर के रूप में उभर सकते हैं. 

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2009 के चुनाव में 1222 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था. यानी प्रति सीट पर 13.6 उम्मीदवार. 2014 में यह बढ़कर 1351 उम्मीदवार या प्रति सीट 15 हो गया. 2019 में यह घटकर 1169 उम्मीदवार या प्रति सीट 13 रह गया. चुनाव आयोग के अनुसार, 2024 में 1051 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, यानी प्रति सीट 11.7 उम्मीदवार. दिलचस्प बात तो ये है कि, हर सीट पर करीब सात निर्दलीय और छोटे दलों के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं जो बड़े पार्टियों से वोटों के बंटवारे के लिए जिम्मेदार होंगे. 

2009 और 2014 में 61 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहे उम्मीदवारों ने जीत के अंतर से ज्यादा वोट हासिल किए. 2019 में यह घटकर 53 सीटें रह गईं, लेकिन यह अभी भी विधानसभा का 60 फीसदी थी. उम्मीदवारों की अधिक संख्या, करीबी मुकाबले और तीसरे स्थान पर रही पार्टी की निर्णायक भूमिका के कारण पिछले तीन चुनावों में से दो में विधानसभाएं मामूली रूप से त्रिशंकु रहीं.

एक तिहाई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला 

2009 और 2014 में चार-चार सीटों पर केवल एक ही महत्वपूर्ण उम्मीदवार था. 2009 में 51 सीटों, 2014 में 37 सीटों और 2014 में 62 सीटों पर दो महत्वपूर्ण उम्मीदवार लड़ाई में थे. 2009 में 35 त्रिकोणीय मुकाबले थे, जो 2014 में बढ़कर 49 हो गए. हालांकि यह 2019 में घटकर 28 रह गया, जो विधानसभा की ताकत का एक तिहाई सीटें है. 

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बताते चले कि, एक महत्वपूर्ण उम्मीदवार वह होता है जिसे अपने निर्वाचन क्षेत्र में पड़े कुल मतों का कम से कम छठा हिस्सा प्राप्त हुआ हो. अगर किसी सीट पर केवल एक ही महत्वपूर्ण उम्मीदवार है, तो इसका मतलब है कि कोई अन्य उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा सकता है, जिसका प्रभावी अर्थ निर्विरोध जीत है. अगर किसी विशेष सीट पर दो महत्वपूर्ण उम्मीदवार हैं, तो वहां द्विध्रुवीय मुकाबला होता है. अगर तीन या अधिक महत्वपूर्ण उम्मीदवार हैं, तो यह त्रिकोणीय या बहुकोणीय मुकाबले होता है. 

2009 में, विधानसभा की आधी से अधिक 48 सीटों पर मुख्य मुकाबला कांग्रेस और इनेलो के बीच था. 2014 में 37 सीटों पर मुकाबला बीजेपी बनाम इनेलो, 18 सीटों पर कांग्रेस बनाम बीजेपी और 12 सीटों पर कांग्रेस बनाम इनेलो मुकाबला था. चौटाला परिवार की पकड़ कमजोर होने और पार्टी में विभाजन के साथ, 2019 में 51 सीटों पर कांग्रेस बनाम बीजेपी के बीच द्विध्रुवीय  मुकाबला हुआ. 16 अन्य सीटों पर बीजेपी और जेजेपी मुख्य दावेदार थे. 

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क्लोज फाइट वाली सीटें 

एक तिहाई सीटों पर बहुकोणीय मुकाबले और प्रतिस्पर्धी राजनीति के कारण पूरे हरियाणा में कांटे की टक्कर हुई है। 2009 में 55 सीटों पर जीत का अंतर 10 फीसदी से कम या उसके बराबर था. 2019 में यह मामूली रूप से घटकर 47 रह गया, जो अभी भी विधानसभा की आधी से अधिक ताकत थी. इन सीटों पर किस्मत बदलने के लिए सिर्फ पांच फीसदी के उतार-चढ़ाव की जरूरत है. 

चुनाव में जीत का औसत अंतर 2009 में 10.8 फीसदी से बढ़कर 2014 में 12.4 फीसदी हो गया क्योंकि बीजेपी ने आराम से बहुमत हासिल कर लिया. वोटों के मामले में 2009 में मार्जिन 10752 बढ़कर 2014 में 17201 के स्तर पर पहुंच गया. 2019 में त्रिशंकु विधानसभा में मार्जिन गिरकर 11.5 फीसदी और वोटों के मामले में 15946 हो गया. इस बार 25 सीटों पर जीत का अंतर 5000 वोटों से कम था. लोकसभा चुनावों में 10 लोकसभा सीटों में से छह पर दो से छह फीसदी के अंतर के साथ बहुत करीबी मुकाबला देखने को मिला. 

निर्दलियों का प्रभाव

अन्य जिसमें छोटे दल और निर्दलीय शामिल हैं, ने हरियाणा के चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ऐसे उम्मीदवारों ने 2009 में 30 फीसदी वोट शेयर के साथ 15 सीटें जीतीं. हालांकि 2019 में सीटों की संख्या घटकर आठ यानी 18 प्रतिशत वोट हो गई, फिर भी यह संख्या बड़ी थी. 

2009 में 83 सीटों पर 'अन्य' का प्रभाव था, जो 2019 में घटकर 44 सीटों पर आ गया. यानी की विधानसभा की करीब 50 फीसदी सीटों पर प्रभाव है. आपको बता दें कि, प्रभाव को उन सीटों की संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है जहां एक पार्टी विजेता, उपविजेता और दूसरे उपविजेता के रूप में समाप्त हुई. 

छोटी पार्टियों का क्या हो सकता है असर?

'अन्य' के अलावा, इनेलो-बसपा गठबंधन को उम्मीद है कि वह जाटों के गुस्से के कुछ खोए हुए हिस्से को अपने पक्ष में कर लेगा. उसे उम्मीद है कि बसपा के साथ गठबंधन के कारण दलित समुदाय के एक वर्ग के वोट उसे मिलेंगे. साथ ही कुछ विधायकों के बीजेपी में शामिल होने से कमजोर हुई जेजेपी की तर्ज पर उन्हें फायदा होगा. 

जेजेपी को 2019 में 10 सीटों पर मिले 15 फीसदी के वोट शेयर को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है. हालांकि 2019 में बीजेपी के साथ चुनाव के बाद गठबंधन के कारण जाटों का उसका मुख्य वोट वर्ग पार्टी से नाखुश है. उसने उन्हें लुभाने के लिए चंद्रशेखर आजाद की पार्टी से गठबंधन किया है. 

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल की रिहाई के बाद AAP भी राज्य की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने में जुटी हुई है. AAP ने कुछ बागियों को मैदान में उतारा है. पार्टी अपने दिल्ली मॉडल के आधार पर मतदाताओं को लुभाने के लिए विधानसभा में अपना खाता खोलने की उम्मीद कर रही है. सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि, ये सभी छोटे दल बीजेपी विरोधी वोटों को विभाजित कर सकते हैं. जिससे बीजेपी को फायदा मिल सकता है. 

हरियाणा में बीजेपी और कांग्रेस दोनों प्रमुख दलों को असंतोष का सामना करना पड़ रहा है. निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे बागी उम्मीदवार उनके लिए चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, बागी उम्मीदवार 20 सीटों पर सियासी गणित बिगाड़ सकते है.  कुल मिलाकर बीजेपी को उम्मीद है कि निर्दलीय और इनेलो-बसपा/जेजेपी-एएसपी गठबंधन विपक्षी वोटों को विभाजित करेंगे. इससे बीजेपी और कांग्रेस के बीच द्विध्रुवीय मुकाबले में कमी आएगी जिससे बीजेपी को फायदा होगा. दूसरी ओर, कांग्रेस का मानना ​​है कि इस बार उसकी लड़ाई सीधे बीजेपी के साथ है. 

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