क्या होता है पकड़ौआ विवाह, क्या है इसका इतिहास, सब जान लीजिए यहां

इन्द्र मोहन

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Pakadua Vivah: दूल्हा राजी, दुल्हन राजी, पंडित राजी, परिजन राजी... ये तो आम शादियों का तरीका है. लेकिन बिहार में एक और अजीबोगरीब शादी प्रथा है, जिसे 'पकड़ौआ विवाह' कहा जाता है. इसमें न लड़के की सहमति जरूरी होती है, न भव्य आयोजन. सवाल है कि पकड़ौआ विवाह क्या है, इसका इतिहास क्या है और यह क्यों फिर से चर्चा में आ रहा है? आइए विस्तार से जानते हैं.  

क्या है पकड़ौआ विवाह?  

पकड़ौआ विवाह का नाम सुनते ही यह साफ होता है कि यह जबरन कराई गई शादी है. इसमें लड़की के परिवार वाले लड़के को अगवा कर लेते हैं और दबाव डालकर शादी करवा देते हैं. खासतौर पर उन लड़कों को निशाना बनाया जाता है जो सरकारी नौकरी में होते हैं या आर्थिक रूप से संपन्न परिवार से आते हैं.  

यहां बैंड-बाजा या बारात की जरूरत नहीं होती. शादी की रस्में जल्दबाजी में पूरी कर ली जाती हैं. सामाजिक दबाव के चलते लड़के के परिजन भी मजबूरी में शादी को मान लेते हैं.  

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पकड़ौआ विवाह का इतिहास  

पकड़ौआ विवाह की शुरुआत 1970-1980 के दशक में मानी जाती है. बिहार के बेगूसराय, दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में इसका सबसे ज्यादा चलन था. इस दौर में सरकारी नौकरी पाने वाले लड़कों की बहुत मांग थी.  

घरवालों को डर लगा रहता था कि उनके बेटे का अपहरण न कर लिया जाए. ज्वाइनिंग की जगह और समय को गुप्त रखा जाता था. कुछ आंकड़ों के अनुसार, मिथिला क्षेत्र समेत बिहार के 18 जिलों में 2024 तक 70 से ज्यादा पकड़ौआ विवाह के मामले सामने आ चुके हैं.  

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क्यों होता था पकड़ौआ विवाह?

बिहार में दहेज प्रथा काफी प्रचलित थी. लड़की के माता-पिता चाहते थे कि उनकी बेटी की शादी किसी सरकारी नौकरी वाले या संपन्न लड़के से हो. ऐसे में जब लड़के की सरकारी नौकरी लगती थी, तो उसे अगवा कर शादी करवा दी जाती थी.  

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इस प्रथा का फायदा उठाते हुए कुछ गिरोह सक्रिय हो गए, जो पैसे लेकर शादी करवाने का ठेका लेते थे. अपहरण के बाद सामाजिक दबाव की वजह से ये शादियां सफल भी हो जाती थीं.  

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आज के समय में पकड़ौआ विवाह

अब समय के साथ पकड़ौआ विवाह के मामले कम हो गए हैं, लेकिन कभी-कभी ऐसे मामले सामने आ जाते हैं. हाल ही में बेगूसराय में एक शिक्षक के पकड़ौआ विवाह का वीडियो वायरल हुआ. इसमें साफ दिख रहा है कि किस तरह जबरदस्ती सिंदूर डलवाकर शादी करवाई जा रही है.  

हालांकि, यह प्रथा अब खत्म होने की कगार पर है, लेकिन इसकी चर्चा समय-समय पर होती रहती है. 

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