बिहार के आरक्षण वाले मामले को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग, क्या होती है ये?

अभिषेक

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9th Schedule: पिछले दिनों बिहार में आरक्षण को लेकर बड़ा वाकया देखने को मिला. दरअसल पिछले साल राज्य सरकार ने कानून बनाकर आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी तक कर दिया था. लेकिन पिछले दिनों पटना हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया. कोर्ट के इस फैसले के बाद कई तरह की चर्चाएं चल रही है. उन्हीं चर्चाओं में से एक चर्चा संविधान के 9वीं अनुसूची की है. हां ये वही अनुसूची ही जिसकी बदौलत तमिलनाडु में 69 फीसदी तक का आरक्षण लागू है. अब बिहार और इसके साथ अन्य राज्यों में भी आरक्षण की सीमा को बढ़ाने और उसे बनाए रखने के लिए 9वीं अनुसूची की बात चल रही है. आइए आपको बताते हैं ऐसा क्या है 9वीं अनुसूची में जिससे राज्यों को मिल जाती है राहत.

पहले जानिए आखिर क्या है 9वीं अनुसूची में?

भारतीय संविधान के 9वीं अनुसूची में केंद्रीय और राज्य कानूनों की एक सूची है. इसे संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 से जोड़ा गया था. यह संविधान में एक नए अनुच्छेद 31(B) के तहत बनाया गया था, जिसे अनुच्छेद 31(A) के साथ सरकार ने कृषि सुधार से संबंधित कानूनों की रक्षा करने और जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए लाया गया था. अनुच्छेद 31(A) कानून के 'उपबंधों' जिसके तहत कानून बनाया जाता है को सुरक्षा प्रदान करता है, जबकि अनुच्छेद 31(B) विशेष कानूनों को सुरक्षा प्रदान करता है. 

इसमें सबसे प्रमुख बात ये है कि, 9वीं अनुसूची में शामिल कानूनों को न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है. यानी इनकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है. पहले संविधान संशोधन में इस अनुसूची में 13 कानूनों को जोड़ा गया था. बाद के विभिन्न संशोधनों सहित वर्तमान में इसमें शामिल कानूनों की संख्या 284 हो गई है. 

क्या 9वीं अनुसूची में शामिल कानून न्यायिक जांच से पूरी तरह मुक्त हैं?

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने 'भारतीय संविधान की मूल संरचना' की एक नई अवधारणा पेश किया था. कोर्ट का ये मानना था कि, जो भी कानून और संविधान संशोधन, संविधान के बुनियादी ढांचे में हस्तक्षेप करेगा उसे शून्य घोषित किया जा सकता है. ऐसे ही आई आर कोल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाई के सभरवाल की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय संसदीय पीठ ने एक अहम फैसला सुनाया था. वह फैसला यह था कि, 'संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन करने वाले कानूनों की समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट का है, भले ही वह 9वीं अनुसूची का हिस्सा क्यों न हो'. सुप्रीम कोर्ट ने तबके अपने आदेश में कहा था कि 24 अप्रैल 1973 के बाद 9वीं अनुसूची में डाले गए सभी कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. यानी वर्तमान में 9वीं अनुसूची में शामिल कानूनों की भी समीक्षा की जा सकती है. 

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'नेहरू ने खोला सरकार के लिए चोर दरवाजा'

न्यूज TAK से बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार, संपादक और लेखक राम बहादुर राय ने बताया कि, '9वीं अनुसूची एक ऐसी युक्ति है जिसे पंडित नेहरू ने अपनी सरकार के फैसलों के बिना किसी कानूनी पचड़े में फंसते हुए आसानी से लागू करने के लिए लाया था. उन्होंने कहा कि, कुल मिलाकर ये एक चोर दरवाजा है जो कानूनी और नैतिक रूप से सही नहीं है. राम बहादुर राय ने कहा, जनता को सरकार से ये अपील करनी चाहिए कि, इसे निरस्त किया जाए क्योंकि मूल संविधान में कुल 8 अनुसूचियां ही थी इसे तत्कालीन सरकार ने अपने सहूलियत के लिए लाया था जो कानून सम्मत नहीं है. 

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