शारदा सिन्हा जैसे चाहतीं थी वैसे ही हुई विदाई, बेटे अंशुमन ने किया मां की आखिरी ख्वाहिश का खुलासा!
शारदा सिन्हा अपनी अंतिम सांसों तक संगीत के प्रति समर्पित रहीं. उनका प्रसिद्ध गीत, “सैय्या निकस गए मैं न लड़ी थी,” उनकी अंतिम रियाज़ का हिस्सा बना, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज की स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया.
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Sharda Sinha: लोक संगीत की प्रतिष्ठित गायिका शारदा सिन्हा अब पंचतत्व में विलीन हो गई हैं. उनकी आवाज और लोक संस्कृति में योगदान उन्हें अमर बना चुका है. बेटे अंशुमान सिन्हा ने मां को मुखाग्नि दी और उनकी इच्छा के अनुसार, अंतिम विदाई के समय छठ पर्व के अवसर पर पटना के घाट पर उनकी अंतिम यात्रा संपन्न हुई. अंशुमान ने कहा कि शारदा जी का गीत, “पटना के घाट पर देबै अरधिया हे छठी मैया,” इस विदाई को और भी विशेष बना गया, जो उनकी मां की गहरी आस्था को दर्शाता है.
सुरों की देवी का संगीत के प्रति समर्पण
शारदा सिन्हा अपनी अंतिम सांसों तक संगीत के प्रति समर्पित रहीं. उनका प्रसिद्ध गीत, “सैय्या निकस गए मैं न लड़ी थी,” उनकी अंतिम रियाज़ का हिस्सा बना, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज की स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया. यह गीत शारदा जी के संगीत और अपने पति के प्रति प्रेम का प्रतीक है. उनकी यह साधना उन्हें सुरों की देवी बना चुकी थी, जो अब अपनी छठ मैया और अपने प्रिय पति के पास जा चुकी हैं.
शारदा जी की अमर छवि
शारदा सिन्हा को स्मरण करते हुए उनकी छवि जेहन में आती है—लाल बिंदी, मुंह में पान, मांग में सिंदूर और चेहरे पर मधुर मुस्कान. लोक संस्कृति और संगीत को उन्होंने अपने अंदाज में जिया और अपनी कला से उसे संजीवनी दी. बिना इन प्रतीकों के, शारदा जी की कल्पना करना असंभव है. उनकी आवाज और आत्मीयता ने लोक संगीत में उनके विशेष स्थान को हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया है.
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हमेशा जीवित रहेंगी लोकगीतों में
शारदा सिन्हा का शरीर भले ही इस दुनिया से विदा हो गया हो, लेकिन उनकी आवाज और गीत हमेशा जीवित रहेंगे. “तार बिजली से पतले हमारे पिया” जैसे गीत हमें उनकी मिठास और अपनेपन का अहसास कराते रहेंगे. शारदा जी का योगदान हमारी लोक संस्कृति, परंपराओं और संस्कारों में हमेशा बना रहेगा. उनकी आवाज लोकगीतों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी गूंजती रहेगी.
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