बिहार में 65 % आरक्षण पर लगी रोक पर EWS और तमिलनाडु में 69 फीसदी रिजर्वेशन कैसे? समझिए इसे

अभिषेक

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Reservation controversy in India: भारत में आरक्षण का मुद्दा किसी न किसी रूप में हमेशा सुर्खियों में बना ही रहता है. हाल में पटना हाई कोर्ट के एक फैसले ने फिर से आरक्षण पर होने वाली बहस को गरम कर दिया. दरअसल पिछले दिनों पटना हाई कोर्ट ने बिहार के उस फैसले जिससे आरक्षण का दायरा 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी किया गया था उसे रद्द कर दिया. कोर्ट ने अपने इस फैसले के पीछे की वजह संविधान के आर्टिकल 14, 15 और 16 में दिए गए समानता के अधिकार का उल्लंघन बताया. 

आपको बता दें कि, बिहार की नीतीश कुमार की सरकार ने साल 2023 में राज्य का आर्थिक और शैक्षणिक सर्वे कराया था. सर्वे में आए आंकड़ों को आधार बनाते हुए सरकार ने शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में SC, ST, EBC और OBC के आरक्षण के दायरे को 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने का कानून बनाया था. तब बिहार में महागठबंधन की सरकार थी. हालांकि विपक्षी में मौजूद बीजेपी ने भी इस कानून का समर्थन किया था. बाद में इस कानून के खिलाफ गौरव कुमार सहित कई याचिकाकर्ताओं ने पटना हाई कोर्ट में अपील दायर की थी. जिसपर आए फैसले में कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया है. 

पहले भी रद्द किया जा चुका है आरक्षण का कानून 

देश में यह पहली मर्तबा नहीं है जब आरक्षण के कानून को रद्द किया गया हो. इससे पहले साल 2021 में महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण, 2015 में हरियाणा में जाट आरक्षण और 2013 में आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण को समाप्त किया जा चुका है. इन सभी के पीछे का तर्क लगभग एक ही है जो 1992 का 'भारत सरकार बनाम इंद्रा साहनी' केस में आया फैसला है. इस केस में दिए अपने फैसले में देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी पर सीमित कर दिया था. यानी की देश में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के दायरे को पार नहीं कर सकती है. 

हालांकि वर्तमान में ऐसा नहीं है कि आरक्षण का दायरा 50 फीसदी पर ही सीमित है. केंद्र की मोदी सरकार ने साल 2019 में एक कानून बनाकर देश के आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग(EWS) के लोगों 10 फीसदी का आरक्षण दे दिया. जो आरक्षण के 50 फीसदी की सीमा को ओवरलैप करता है. इसके साथ ही तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहां 1990 के दशक से ही 69 फीसदी तक के आरक्षण की व्यवस्था है. ये सभी इंदिरा साहनी केस में आए फैसले कि, 'आरक्षण की सीमा 50 तक हो सकती है' को दरकिनार करते है. फिर भी किसी कोर्ट ने इन कानूनों पर कोई एक्शन नहीं लिया है और ये आज भी बने हुए है. आखिर ऐसा क्यों है? आइए हम आपको बताते हैं. 

पहले जानिए EWS आरक्षण के मुद्दे पर कैसे टूटी 50 फीसदी की सीमा?

ये सवाल उठता है कि, अगर आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा है तो सुप्रीम कोर्ट ने EWS के लिए 10 फीसदी आरक्षण को वैध कैसे मान लिया? बता दें कि, EWS को 10 फीसदी के आरक्षण का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था. तब पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने 3-2 से इस आरक्षण को सही ठहराया था. EWS के 50 फीसदी की सीमा लांघने पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश महेश्वरी ने कहा था कि, 'आरक्षण के 50 फीसदी कोटे की सीमा कठोर नहीं है. यह संविधान में एक दिशानिर्देश मात्र है'. उनका कहना था कि, बदलते सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप ये बदलाव किये जा सकते हैं.

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दूसरी तरफ न्यायमूर्ति भट्ट ने तर्क दिया था कि, '50 फीसदी की अपर सीमा सिर्फ SC, ST और OBC के लिए लागू होती है EWS श्रेणी के लिए नहीं'. वैसे उनका यह भी कहना था कि, '50 फीसदी की सीमा को तोड़ने से भविष्य में दिक्कत होगी और इसके परिणामस्वरूप समाज में खंडन होगा'. न्यायमूर्ति भट्ट ने आगे कहा था कि, '50 फीसदी की सीमा विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच समानता बनाए रखने के लिए आवश्यक है'. 

तमिलनाडु में कैसे लागू है 69 फीसदी तक आरक्षण?

साल 1971 तक तमिलनाडु में 41 फीसदी का आरक्षण था. उसके बाद विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने-अपने सहूलियत के हिसाब से साल 1990 तक इस दायरे को 69 फीसदी तक बढ़ा दिया. इसमें पिछड़ा वर्ग को 26.5 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 20 फीसदी, पिछड़ा मुस्लिम वर्ग को 3.5 फीसदी, अनुसूचित जाति को 18 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 1 फीसदी का आरक्षण प्राप्त है. 

साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में आए सुप्रीम कोर्ट(SC) के फैसले के बाद आज भी तमिलनाडु में 69 फीसदी का आरक्षण लागू है. दरअसल SC के 50 फीसदी के आरक्षण के फैसले के बाद ही जयललिता के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार ने मद्रास उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर शैक्षणिक वर्ष 1993-94 के लिए राज्य के स्कूलों, कॉलेजों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले का हवाला देते हुए आरक्षण को बरकरार रखने की बात कही थी. इस पर मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि, तमिलनाडु सरकार उस शैक्षणिक वर्ष के दौरान अपनी आरक्षण नीति को जारी रख सकती है, लेकिन अगले शैक्षणिक वर्ष यानी 1994-95 में आरक्षण की सीमा को घटाकर 50 फीसदी कर दिया जाना चाहिए. 

कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की, जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गों के लाभ के लिए राज्य सरकार की आरक्षण नीति को जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिए. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें इस बात को दोहराया गया कि, 'आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए'.

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सर्वसम्मति से विधानसभा में पारित हुआ कानून 

तमिलनाडु की जयललिता सरकार को अदालतों से कोई राहत नहीं मिली. इसके बाद नवंबर 1993 में एक विशेष विधानसभा सत्र बुलाया गया. फिर विधानसभा में तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण और राज्य के अधीन सेवाओं में नियुक्तियों या पदों का आरक्षण) विधेयक, 1993 सर्वसम्मति से पारित किया गया. इस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा गया. फिर नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से संविधान में संशोधन के लिए कदम उठाने को कहा गया, जिससे तमिलनाडु सरकार पिछड़े वर्गों के कल्याण और उन्नति के लिए 69 फीसदी के आरक्षण की अपनी नीति जारी रख सके. 

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अब जानिए आरक्षण का 'तमिलनाडु मॉडल' क्या है?

तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने राज्य के नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया और केंद्र सरकार से बातचीत की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि, तमिलनाडु सरकार के एक्ट को संविधान की 9वीं अनुसूची के तहत लाया जाना चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि इसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके. आपको बता दें कि, 'संविधान के आर्टिकल 31(B) में कहा गया है कि, 9वीं अनुसूची के अंतर्गत शामिल कोई भी एक्ट 'किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण के किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के बावजूद' लागू रहेंगे'. यानी ऐसे कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती. तमिलनाडु सरकार के एक्ट को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद राज्य में 69 फीसदी का आरक्षण पक्का हो गया. इसके साथ ही इस एक्ट को संविधान की 9वीं अनुसूची के अंतर्गत भी लाया गया. जिससे कोई भी कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. 

हालांकि पहले ऐसा प्रावधान था कि, 9वीं अनुसूची में डाले गए कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं होती है लेकिन साल 2007 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाईके सभरवाल की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय संसदीय पीठ ने एक अहम फैसला सुनाया था. वह फैसला यह था कि, 'संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन करने वाले कानूनों की समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट का है, भले ही वह 9वीं अनुसूची का हिस्सा क्यों न हो'. सुप्रीम कोर्ट ने तबके अपने आदेश में कहा था कि 24 अप्रैल 1973 के बाद 9वीं अनुसूची में डाले गए सभी कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. हालांकि इसके बाद भी तमिलनाडु का आरक्षण का कानून अभी भी लागू है. 

9वीं अनुसूची के रास्ते आरक्षण लाने की बात करते है राज्य लेकिन इसमें है बड़ी बाधा 

देश में राज्य सरकारें अपनी सहूलियत के हिसाब से बार-बार आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का प्रयास करती रही है. हालांकि कोर्ट ने उनके फैसलों को रद्द कर दिया है जिसमें हालिया उदाहरण बिहार का है. हालांकि आरक्षण को बढ़ाने और उसे बिना किसी हस्तक्षेप के बनाए रखने का 'तमिलनाडु मॉडल' भी है जिसे हमने विस्तार से ऊपर बताया है. इसकी चर्चा हाल ही में राष्ट्रीय जनता दल एक राज्यसभा सांसद मनोज झा ने भी की. वैसे साल 2007 के बाद से 9वीं अनुसूची में शामिल कानूनों की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. फिर भी ये बात उठती रही है कि, राज्यों में इस विधि को अपनाकर आरक्षण के दायरे को बढ़ाया जा सकता है. लेकिन इसमें सबसे बड़ा पेच राष्ट्रपति का अनुमोदन करना और संविधान में संसोधन करके कानून को 9वीं अनुसूची में डालने का है जो केंद्र सरकार के अधीन है. कुल मिलाकर बदलते सामाजिक परिदृश्य के अनुसार आरक्षण में भी संसोधन की जरूरत है लेकिन ये संभव कैसे होगा? केंद्र सरकार या राज्य सरकारों में इसे लेकर कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं बन पाई है. 

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