सिंधिया के बेटे महाआर्यमन बोले- सियासत में आने की योजना नहीं, इनके घराने की कहानी जानिए

देवराज गौर

• 02:52 PM • 25 Sep 2023

Mahanaaryaman Scindia News: केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे महाआर्यमन ने राजनीति में आने की अटकलों को खारिज किया है. उन्होंने साफ किया है कि…

ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे अभी सियासत से रहेंगे दूर!

ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे अभी सियासत से रहेंगे दूर!

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Mahanaaryaman Scindia News: केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे महाआर्यमन ने राजनीति में आने की अटकलों को खारिज किया है. उन्होंने साफ किया है कि फिलहाल पॉलिटिक्स में आने की उनकी कोई योजना नहीं है. मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इस चुनाव में महाआर्यमन के पिता ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी ताकत की परीक्षा होनी है. कांग्रेस से पाला बदल बीजेपी में आने के बाद यह पहला बड़ा चुनाव होगा, जब उन्हें अपने सियासी कद को मैदान में साबित करना होगा.

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महाआर्यमन भले खुद को सियासत से दूर बता रहे हों, लेकिन सिंधिया राजघराना आजादी के बाद से ही देश की सियासत में सक्रिय है. आइए आज आपको इसकी कहानी बताते हैं.

पहले महाआर्यमन को जान लीजिए

इंदौर में राजनीति में आने के सवाल को लेकर महाआर्यमन सिंधिया ने अपने बयान की वजह से चर्चा में हैं. उन्होंने कहा है कि वो अभी राजनीति में आने के मूड में नहीं हैं, लेकिन वो जब भी राजनीति में आएंगे तो मीडिया को फोन कर सूचना अवश्य देंगे. उन्होंने कहा कि उन्हें अभी जो जिम्मेदारी दी गई है वह उसे निभाना चाहते हैं. महाआर्यमन अभी मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के सदस्य हैं और ग्वालियर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. राजे या रजवाड़ों का दौर भले ही बीत चुका हो, लेकिन सिंधिया खानदान के लोगों को लोग आज भी महाराज, महारानी या युवराज ही बुलाते हैं. खासकर ग्वालियर-चंबल संभाग में तो यह प्रथा आज भी बनी हुई है.

चलिए शुरू से शुरू करते हैं सिंधिया परिवार की सियासत की कहानी

सिंधिया राजघराने का इतिहास करीब 288 साल पहले जाता है. सिंधिया खानदान की जड़ें मध्यप्रदेश से नहीं बल्कि महाराष्ट्र से जुड़ी हैं. सिंधिया वंश के पहले शासक राणोजी सिंधिया का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था. वह पेशवा वाजीराव प्रथम के सेनापति थे. मराठा साम्राज्य के तहत वाजीराव पेशवा ने अपने राज्य को कई हिस्सों में बांटा था, जिसमें उन्होंने ही ग्वालियर स्टेट को राणोजी सिंधिया को सौंपा था. राणोजी सिंधिया ने ही ग्वालियर स्टेट की स्थापना की, इसलिए आप कह सकते हैं कि राणोजी सिंधिया ही ग्वालियर राज्य के पहले शासक थे. इन्हीं राणोजी सिंधिया के बेटे महादजी सिंधिया के वंशज हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया के दादाजी जीवाजीराव सिंधिया इस वंश के आखिरी शासक थे.

आजादी के बाद ही सियासत में हो गई सिंधिया परिवार की एंट्री

1947 में देश को आजादी मिलने के साथ ही सिंधिया परिवार के कई सदस्य भी राजनीति में शामिल होते चले गए. हालांकि वह राजनीति के अलग-अलग धड़ों में बंट गए. ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया जिन्हें ग्वालियर की राजमाता भी कहा जाता है, ने कांग्रेस के टिकट पर 1957 और 1962 का लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता भी. 1967 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के साथ विवादों के चलते उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ दिया था. वह अपने साथ 35 विधायकों को ले गईं जिसके चलते मध्यप्रदेश में कांग्रस को अपनी सरकार गंवानी पड़ी.

1967 में उन्होंने स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की, जो उस समय कांग्रस की धुर विरोधी थी.
विजयाराजे सिंधिया ने बाद में जनसंघ का दामन थामा, जो आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आया. विजयाराजे भारतीय जनता पार्टी की संस्थापक सदस्य भी रहीं. विजयाराजे को पहली बार हार का सामना तब करना पड़ा जब बीजेपी ने उन्हें 1980 में रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ उतारा था.

इसी तरह विजयाराजे सिंधिया की तीनों संतानों माधवराव, वंसुधरा राजे और यशोधरा राजे ने भी राजनीति में एंट्री ली. 1984 में वसुंधरा ने अपने सियासी करियर की शुरुआत की. सीट चुनी मध्यप्रदेश की भिंड, जो कभी ग्वालियर रियासत का हिस्सा हुआ करती थी. यह कभी उनकी मां की रियासत थी, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से उपजी लहर के कारण वंसुधरा राजे को अपने उस पहले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. बाद में 1985 में उन्होंने राजस्थान के धौलपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ा. धौलपुर वसुंधरा की ससुराल भी है. 1989 में वह राजस्थान की झालावाड़ सीट से पहली बार संसद पहुंचीं और फिर 2003 में वह राजस्थान की पहली महिला मु्ख्यमंत्री बनीं.

ज्योतिरादित्य की दूसरी बुआ यशोधरा राजे शादी के बाद अमेरिका चलीं गईं, लेकिन अपने देश लौटते ही वह राजनीति में सक्रिय हो गईं. अभी वह वर्तमान में मध्यप्रदेश के शिवपुरी से विधायक हैं. वह अभी तक चार बार विधायक रह चुकी हैं.

माधवराव सिंधिया (फाइल फोटो, तस्वीर: इंडिया टुडे).

माधवराव सिंधिया का सियासी सफर

माधवराव सिंधिया ने अपना पहला चुनाव गुना लोकसभा क्षेत्र से 1971 में निर्दलीय लड़ा. उस वक्त जनसंघ ने उन्हें समर्थन दिया था. तब वह मात्र 26 वर्ष की आयु में पहली बार संसद पहुंचे थे. वह कभी चुनाव नहीं हारे तब भी नहीं जब उन्होंने 1977 का चुनाव स्वतंत्र निर्दलीय रूप से लड़ा था. बाद में मां विजयाराजे से मतभेदों के चलते 1980 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और गुना से तीसरी बार संसद पहुंचे.

1984 में कांग्रेस ने उन्हें ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ टिकट दिया, जिसमें उन्होंने वाजपेयी को एक बड़े मार्जिन से हराया. दिन-व-दिन माधवराव सिंधिया का कद कांग्रेस में बढ़ता रहा. उन्होंने कांग्रेस की सरकारों में कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारी भी संभाली, लेकिन उनकी बहनें वसुंधरा राजे राजस्थान में और यशोधरा राजे मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के साथ ही रहीं.

ज्योतिरादित्य ने संभाली पिता की सियासी कमान

2001 में माधवराव सिंधिया की एक प्लेन क्रैश में असामयिक मृत्यु हो गई. उसी वर्ष उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी का दामन थामा. वह अपने पिता की मृत्यु से खाली हुई गुना की सीट पर हुए उपचुनाव में लड़े और जीते. दून स्कूल से अपनी प्राइमरी शिक्षा हासिल करने के बाद ज्योतिरादित्य ने 1993 में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन और स्टैनफॉर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किया. वह अपने पिता के समय से ही गुना और ग्वालियर में कई सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में शामिल रहने लगे थे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने लगातार तीन बार लोकसभा चुनाव जीता. 2014 में जब देश में मोदी की लहर चल रही थी, तब भी उन्हें जीत मिली, लेकिन 2019 में उन्हें बीजेपी की ओर से केपी यादव का सामना करना पड़ाय. गुना से 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद सिंधिया ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया. ज्योतिरादित्य के बीजेपी में आने के बाद अब परिवार के सभी प्रमुख सदस्य बीजेपी के साथ हैं.

राजनैतिक परंपरा को संभालने के लिए तैयार होते युवराज

अपने खानदान की सियासी परिपाटी को संभालने के लिए ज्योतिरादित्य के बेटे महाआर्यमन सिंधिया भी सियासी गुर सीख रहे हैं. वह अक्सर राजनैतिक कार्यक्रमों में शामिल होते दिखाई देते हैं. अपने पिता की ही तरह अपने क्षेत्र ग्वालियर-चंबल संभाग में खेल-कूद से लेकर धार्मिक-राजनैतिक कार्यक्रमों में शामिल होकर जनता के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रखते हैं. अब देखना यह होगा कि कब वह आधिकारिक रूप से राजनीति में शामिल होते हैं.

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