दो साल में वाजपेयी, देवेगौड़ा और गुजराल देश को मिले थे 3 प्रधानमंत्री, कहानी उस दौर की जब किसी को नहीं मिला था बहुमत

News Tak Desk

24 May 2024 (अपडेटेड: May 24 2024 6:22 PM)

1996 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली.

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Indian Politics Of 1990s: 1990 का दौर भारत के सियासत में एक बड़े उथल-पुथल वाला दौर था. एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी देश के भुगतान संतुलन का खतरा मंडरा रहा था यानी भारत विदेश से कोई भी सामान इंपोर्ट करने कि स्थिति में नहीं था. दूसरी तरफ केंद्र में गठबंधन की अस्थिर सरकार थी. सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के कमजोर होने के बाद से ही विपक्षी पार्टियों ने गठबंधन की राजनीति शुरू कर दी थी. 1991 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद पी. वी. नरसिम्हा राव पीएम बने जिन्होंने पूरे पांच साल तक गठबंधन की सरकार चलाई. 1996 आते-आते वोटरों का भरोसा सभी पार्टियों से उठने लगा और इसका असर चुनावी नतीजों पर भी दिखा. 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. बीजेपी 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी वहीं कांग्रेस सिर्फ 140 सीटों पर सिमट गई. आइए हम आपको बताते हैं गठबंधन के इस दौर में कैसी थी देश की सियासत.

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बीजेपी का उदय और वाजपेयी का 13 दिन का शासन

साल 1996 में हुआ लोकसभा चुनाव भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ. अस्तित्व में आने के बाद बीजेपी पहली बार देश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हालांकि उसे बहुमत नहीं मिला था. किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने कि वजह से अगले दो सालों में देश ने तीन प्रधानमंत्री देखें. इस घटनाक्रम से गठबंधन की सरकारों में होने वाली समस्याओं को समझा जा सकता है. 27 अप्रैल से 7 मई 1996 तक चले चुनाव में 59.25 करोड़ मतदाताओं में से 57.94 फीसदी यानी 34.33 करोड़ वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. 543 सीटों पर हुए चुनाव में करीब 14 हजार उम्मीदवार मैदान में थे. इस चुनाव में कांग्रेस अपने इलेक्शन पॉलिटिक्स के इतिहास में सबसे कम सीटें जीती थी. पार्टी सिर्फ 140 सीटों पर सिमट गई, वहीं बीजेपी ने 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर इतिहास रच दिया. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भी बीजेपी के पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या नहीं थी. 

वाजपेयी सरकार का गठन और पतन

सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. बीजेपी ने बहुमत पाने के लिए अलग-अलग दलों से बातचीत शुरू की. हालांकि अंततः उन्हें बहुमत नहीं मिल सका और वाजपेयी सरकार का सफर केवल 13 दिनों का ही रहा. 27 मई को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश होने के बाद यह साफ हो गया कि उनके पास पर्याप्त समर्थन नहीं है. वाजपेयी ने सदन में कहा कि, 'मैं राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंपने जा रहा हूं' और इस तरह बीजेपी की पहली सरकार सिर्फ 13 दिनों में गिर गई.  

संयुक्त मोर्चा और देवेगौड़ा की सरकार 

अटल बिहारी वाजपेयी के इस्तीफा देने के बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी. संयुक्त मोर्चे को 13 पार्टियों के गठबंधन से बनाया गया था. इसके संयोजक आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे. सर्वदलीय बैठ हुई और कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री चुना गया. 1 जून 1996 को देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. देवेगौड़ा के मंत्रिमंडल में कई बड़े नेता शामिल थे. मुलायम सिंह यादव रक्षा मंत्री बने, पी चिदंबरम वित्त मंत्री और इंद्रजीत गुप्ता गृह मंत्री बनाए गए. वैसे तो संयुक्त मोर्चा के पास खुद का बहुमत नहीं था लेकिन कांग्रेस ने सरकार को बाहर से समर्थन दिया था जिससे ये सरकार चल सकी. 

गुजराल बने पीएम लेकिन फिर भी नहीं चल सका गठबंधन 

कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी ने मार्च 1997 में देवेगौड़ा सरकार से समर्थन वापस ले लिया जिसके बाद देवेगौड़ा कि सरकार गिर गई. केसरी ने संयुक्त मोर्चा के एक नए नेता को समर्थन देने की पेशकश की और इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. 21 अप्रैल 1997 को गुजराल ने शपथ ली और देवेगौड़ा के मंत्रिमंडल को बरकरार रखा. हालांकि गुजराल सरकार भी ज्यादा दिन टिक नहीं पाई. नवंबर 1997 में जैन आयोग रिपोर्ट जिसमें राजीव गांधी हत्या कांड से जुड़ी जानकारी थी लीक होने के बाद कांग्रेस ने डीएमके पार्टी के सदस्यों को सरकार से हटाने की मांग की. गुजराल के इनकार करने पर सीताराम केसरी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और संयुक्त मोर्चे की सरकार दूसरी बार गिर गई.   

इस तरह 1996 से 1998 के बीच भारत ने तीन प्रधानमंत्री देखे. यह समय भारतीय राजनीति में अस्थिरता और गठबंधन सरकारों की जटिलताओं का प्रतीक था. यह कहानी न केवल देश कि राजनीतिक इतिहास की गहराइयों को उजागर करती है, बल्कि उन दिनों की चुनौतियों और अस्थिरताओं को भी सामने लाती है जिनका सामना देश को करना पड़ा था. हालांकि उसके बाद से देश में कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई और सभी प्रधानमंत्रियों ने अपना कार्यकाल बिना किसी हस्तक्षेप के पूरा किया. 

इस स्टोरी को न्यूजतक के साथ इंटर्नशिप कर रहे IIMC के रेडियो टेलीविजन विभाग के छात्र देवशीष शेखावत ने लिखा है.

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