दिल्ली में बीजेपी की नई CM और नया मंत्रिमंडल का बिहार चुनाव पर कितना पड़ेगा असर? जानें

विजय विद्रोही

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तस्वीर: राजस्थान तक.
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दिल्ली में हाल ही में बीजेपी ने नया मंत्रिमंडल गठित किया है, लेकिन इस मंत्रिमंडल को लेकर विवाद उठने लगे हैं. खासकर, इसमें जातीय संतुलन और पूर्वांचली वोटरों को प्रतिनिधित्व देने के मुद्दे पर सवाल खड़े हो रहे हैं. दिल्ली में लगभग 40-42 लाख पूर्वांचली वोटर हैं, जिनमें से एक बड़ा हिस्सा इस बार बीजेपी को समर्थन देकर सत्ता में लाने में मददगार बना, लेकिन जब मंत्रिमंडल गठन की बारी आई, तो इस समुदाय के नेताओं को अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिला. इसका संभावित असर बिहार विधानसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है, जो इस साल नवंबर में होने हैं.

दिल्ली सरकार के इस नए मंत्रिमंडल में कुल सात मंत्री बनाए गए हैं, जिनमें से चार सवर्ण समुदाय से आते हैं. मुख्यमंत्री पद पर रेखा गुप्ता (वैश्य) को नियुक्त किया गया है, जो संघ की पसंद बताई जा रही हैं. अन्य मंत्रियों में आशीष सूद (पंजाबी), कपिल मिश्रा (ब्राह्मण), और पंकज कुमार सिंह (ठाकुर) शामिल हैं. इसके अलावा, एक मंत्री दलित समुदाय से, एक अल्पसंख्यक सिख समुदाय से और एक ओबीसी जाट समुदाय से आते हैं.

पूर्वांचली वोटरों की नाराजगी?

बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में पूर्वांचली वोटरों को साधने के लिए गहरी रणनीति बनाई थी और उसमें काफी हद तक सफल भी रही. झुग्गी-झोपड़ी वोटरों और पूर्वांचली मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी का साथ छोड़कर बीजेपी का समर्थन किया, लेकिन जब मंत्रिमंडल की बात आई तो सिर्फ दो पूर्वांचली नेताओं को ही जगह मिली, जिनमें एक ब्राह्मण और एक ठाकुर हैं.

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यह समीकरण पूर्वांचल के मतदाताओं को कितना संतुष्ट करेगा, यह बड़ा सवाल है. बिहार चुनाव को देखते हुए, बीजेपी को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह वहां के मतदाताओं को सही संदेश दे सके. बिहार में महादलित, ओबीसी और पसमांदा मुस्लिम मतदाता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन दिल्ली के मंत्रिमंडल में इन समुदायों का सीमित प्रतिनिधित्व कहीं न कहीं बिहार में गलत संकेत दे सकता है.

बीजेपी की रणनीति और संभावित नुकसान 

बीजेपी चुनावी रणनीति बनाने में माहिर मानी जाती है. पार्टी हर राज्य के लिए अलग-अलग रणनीति बनाती है और जातिगत समीकरणों का विशेष ध्यान रखती है. दिल्ली के नए मंत्रिमंडल के गठन को अगर पार्टी की व्यापक रणनीति का हिस्सा माना जाए, तो यह सवाल उठता है कि क्या बीजेपी ने बिहार को साधने की कोशिश नहीं की?

बिहार में महादलित, महा-पिछड़े और पसमांदा मुस्लिम वोटरों का प्रभाव अधिक है. यदि बिहार में यह संदेश जाता है कि बीजेपी केवल सवर्णों को महत्व दे रही है, तो इसका असर नवंबर चुनावों पर पड़ सकता है. 

संघ की भूमिका और अंदरूनी समीकरण 

ऐसा कहा जा रहा है कि दिल्ली के मंत्रिमंडल के गठन में संघ की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. संघ की पसंद से रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया गया, वहीं कपिल मिश्रा को भी संघ का समर्थन प्राप्त बताया जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या संघ के दबाव में आकर बीजेपी ने जातीय समीकरणों की अनदेखी कर दी?

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अगर हम राजस्थान और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडलों को देखें, तो वहां भी ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय का दबदबा है. दिल्ली में भी यही समीकरण दोहराया गया है. बीजेपी को लगता है कि सवर्ण वोटरों को मजबूती से अपने पाले में रखने से उसे लाभ होगा, लेकिन बिहार में यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है.

गुर्जर और अन्य ओबीसी समुदायों की उपेक्षा 

दिल्ली की राजनीति में गुर्जर समुदाय की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पांच गुर्जर बहुल सीटों में से दो पर बीजेपी ने जीत दर्ज की, लेकिन उन्हें मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व नहीं मिला. इसी तरह, हरियाणा से जुड़े करीब 13-14 सीटों पर बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन ओबीसी समुदाय के लिए सिर्फ एक ही मंत्री रखा गया. यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या बीजेपी दिल्ली की जातिगत राजनीति को साधने में पूरी तरह सफल रही?

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बिहार चुनाव के लिए सबक 

बिहार में आगामी चुनावों के लिए बीजेपी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा. अगर वह पूर्वांचली वोटरों को साधने में सफल नहीं होती है, तो यह बिहार चुनाव में नुकसानदायक साबित हो सकता है. बिहार में गठबंधन की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण होती है, और बीजेपी को यह तय करना होगा कि वह नीतीश कुमार के भरोसे रहेगी या अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.

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