केजरीवाल की पॉलिटिक्स में कैसे फंसी BJP और कांग्रेस? मोदी, राहुल के बाद सबसे अधिक इनकी ही चर्चा

अभिषेक शर्मा

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Arvind Kejriwal
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न्यूज़ हाइलाइट्स

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अरविंद केजरीवाल के हर निर्णय ने बीजेपी और कांग्रेस को चौंकाया है.

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बीजेपी को उनकी ही कोशिशों में उलझाते नजर आते हैं केजरीवाल.

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कांग्रेस से भी जरूरत के हिसाब से संबंध रखती है आम आदमी पार्टी.

Arvind Kejriwal: भारतीय राजनीति के इस दौर में पीएम नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बाद जिस नेता की सबसे अधिक चर्चा है, वह हैं अरविंद केजरीवाल. उनकी राजनीति की शुरूआत भी चौंकाती है और लिए गए अब तक के सभी निर्णय भी आपको चौंकाते हैं. आयकर विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर की नौकरी छोड़ने, आरटीआई एक्टिविस्ट बनने, लोकपाल के लिए अन्ना मूवमेंट को लीड करने और फिर आम आदमी पार्टी बनाकर भारतीय राजनीति में प्रवेश करने की उनकी पूरी यात्रा ही लोगों को चौंकाती है. 2012 में आप पार्टी बनती है, 2013 में पहली बार 70 में से 28 सीटें जीती और जिस कांग्रेस सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन चलाया, उसी की मदद से पहली बार सरकार बनाई. तब से लेकर अब तक हर बार अरविंद केजरीवाल ने सभी को चौंकाया है.

अरविंद केजरीवाल ने जमानत पर जेल से बाहर आते ही ऐलान कर दिया कि वे दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे. आतिशी को दिल्ली का नया मुख्यमंत्री बनाया जाएगा. वे चाहते तो जेल के अंदर रहकर भी इस्तीफा दे सकते थे लेकिन उन्होंने जेल से बाहर आने के बाद की टाइमिंग चुनी. उनकी इस टाइमिंग को लेकर राजनीतिक पंडित अपने-अपने हिसाब से उनके फैसलों का विश्लेषण कर रहे हैं.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा देना चौंकाने से ज़्यादा नाटकीयता से भरा फ़ैसला है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद वो सचिवालय नहीं जा सकते थे. किसी फ़ाइल पर साइन नहीं कर सकते थे. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार दिल्ली का मुख्यमंत्री वैसे भी एक मेयर से ज़्यादा कुछ नहीं है, इसलिए उन्होंने इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा है. लेकिन टाइमिंग ऐसी चुनी कि देश में संदेश जाए कि एक मुख्यमंत्री को केंद्र की मोदी सरकार ने प्रताड़ित कर जेल भेजा. लेकिन वह हारा नहीं, डिगा नहीं और जेल से बाहर आकर अपनी मर्जी से पद से इस्तीफा दिया, ताकि जनता की अदालत में जाकर अग्निपरीक्षा का सामना कर पाक साफ होकर ही पुन पद पर बैठ सके. ये संदेश देने की कोशिश साफ तौर पर उनके इस फैसले में झलकती है.

आतिशी मार्लेना ही क्यों?

राजनीति के जानकार बताते हैं कि आतिशी मार्लेना उच्च शिक्षित हैं और राजनीतिक तौर पर वे अति महत्वाकांक्षी नहीं हैं. न ही आतिशी से आप पार्टी में अरविंद केजरीवाल को वैसा खतरा हो सकता है, जैसा खतरा झारखंड में हेमंत सोरेन को चंपाई सोरेन से या बिहार में नीतिश कुमार को जीतनराम मांझी से हुआ था. हेमंत ने भी जेल जाने से पहले इस्तीफा दिया और चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया. जब वे जेल से बाहर आए तो चंपाई सोरेन पद से तो हट गए लेकिन बीजेपी के साथ मिलकर उनकी सरकार गिराने की कोशिश करने लगे. हालांकि झारखंड में वे असफल रहे. बिहार में भी नीतिश कुमार ने एक समय जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया था, बाद में उन्होंने पद छोड़ने से इनकार किया. फिर जेडीयू से बाहर आकर हम पार्टी बना लिए और नीतिश कुमार के प्रतिद्वंदी बन गए. अरविंद केजरीवाल को इस बात का यकीन है कि आप पार्टी में ऐसी कोई हरकत आतिशी नहीं करेंगी.

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केजरीवाल की राजनीति में 'रिस्क' है प्रमुख फैक्टर

राजनीति के जानकार बताते हैं कि केजरीवाल की राजनीति में रिस्क एक अहम फैक्टर है. वे रिस्क लेने में कभी घबराते नहीं हैं और बेहद बोल्ड डिसीजन वे आराम से ले लेते हैं. पहली बार जब वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने तो सरकार कांग्रेस के सपोर्ट से बना ली,जबकि कांग्रेस की केंद्र सरकार के विरोध की राजनीति करके ही वे सत्ता तक पहुंचे थे.

आलोचना हुई तो चंद महीने में ही इस्तीफा देकर फिर से चुनावी मैदान में कूद गए और 2013 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे. इस चुनाव में भी उन्होंने नई दिल्ली सीट से 15 साल से मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया और जीते भी. 2014 में वाराणसी से नरेंद्र मोदी के सामने लोकसभा चुनाव लड़ने का रिस्क लिया. वे हारे जरूर लेकिन दो लाख से अधिक वोट लेकर वे मोदी के बाद दूसरे नंबर पर रहे और देशभर में चर्चित हो गए.

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ये उनकी रिस्क लेने की क्षमता का ही नतीजा था कि वे दिल्ली के साथ-साथ पंजाब में भी लगातार एक्टिव रहे. किसान आंदोलन की वजह से भी उनकी पार्टी को लाभ मिला. आखिरकार पंजाब में कांग्रेस की आपसी फूट और किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी के अलोकप्रिय हो जाने की वजह से वे वहां पर सरकार बनाने में सफल रहे. जिसके बाद उनकी आप पार्टी को नेशनल पार्टी का दर्जा मिला. बहुत कम समय में काफी सफलताएं उन्हें इस दौरान मिलीं.

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जेल में रहते हुए सरकार चलाने के निर्णय ने भी चौंकाया

अरविंद केजरीवाल जब इसी साल 21 मार्च को दिल्ली की नई आबकारी नीति में कथित अनियमितता के मामले में जेल गए, तब उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा नहीं दिया था. जेल में मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली की सरकार चलाई. नैतिकता की बात करने वाले केजरीवाल ने इस्तीफा नहीं दिया तो लोगों ने सवाल खड़े किए.

लेकिन अरविंद केजरीवाल टस से मस नहीं हुए. राजनीतिक विश्लेषक इसका कारण बताते हैं कि वे दरअसल भारत के साथ ही दुनियाभर में यह संदेश जारी कराना चाहते थे कि केंद्र की मोदी सरकार एक तानाशाह सरकार है जो जनता द्वारा चुने गए सीएम को भी जेल भिजवा देते हैं. उन्होंने इस घटना की तुलना पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को जेल भेजने की घटना से की. कुल मिलाकर कहीं न कहीं वे भी चाहते थे कि उनके जेल में सीएम के तौर पर काम करने की बात को खूब उछाला जाए. इससे बीजेपी और मोदी सरकार की छवि को ही धक्का लगा.

जब जमानत पर वे जेल से बाहर आ गए तो बड़े आराम से उन्होंने इस्तीफा देने का ऐलान किया. ताकि अब खुलकर बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली के आगामी चुनाव में कैंपेनिंग की जा सके. कुल मिलाकर यदि गहराई से देखें तो अरविंद केजरीवाल ने सही मायने में मोदी के 'आपदा में अवसर' की सीख को अच्छे से अपनाया और जमकर भुनाया.

राहुल के साथ भी, राहुल के खिलाफ भी खड़े हैं केजरीवाल?

बात यदि कांग्रेस और राहुल गांधी के साथ केजरीवाल के संबंधों की करें तो राजनीति के जानकार बहुत स्पष्ट रूप से बताते हैं कि केजरीवाल की कांग्रेस और राहुल गांधी के साथ जो रणनीति है, उसे करीब से समझें तो पता चलता है कि वे राहुल गांधी के साथ भी हैं और उनके खिलाफ भी. जरूरत के हिसाब से वे राहुल गांधी के साथ आ जाते हैं और जरूरत के हिसाब से ही वे उनके खिलाफ भी नजर आते हैं.

जब बात इंडिया गठबंधन बनाने की आई और लोकसभा चुनाव में लड़ने की आई तो केजरीवाल की आप और कांग्रेस ने गठबंधन बनाकर दिल्ली में लोकसभा चुनाव लड़ा. हालांकि अपेक्षित सफलताएं दोनों को ही नहीं मिली. बात जब राज्यों के विधानसभा की आई तो हरियाणा में न तो कांग्रेस ने और न ही आप पार्टी ने अपनी शर्तों से समझौता किया और इस वक्त हरियाणा के चुनाव में आप और कांग्रेस दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतार चुकी हैं.

जाहिर है कि जब बात लोकसभा चुनाव की आएगी तो आप और कांग्रेस साथ आ सकते हैं और जब राज्यों के विधानसभा चुनाव लड़ने की बात आएगी तो दोनों एक दूसरे के खिलाफ चुनावी मैदान में ताल ठोक सकते हैं. कुल मिलाकर इन तमाम कोशिशों का फायदा बीजेपी और कांग्रेस से कहीं अधिक केजरीवाल और आप पार्टी को ही मिला है. इसलिए 2012 में आप पार्टी बनने के बाद से अब तक मात्र 12 साल में ही केजरीवाल का राजनीतिक कद राष्ट्रीय स्तर के नेता का हो चुका है और इसलिए देश में पीएम मोदी और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के बाद सबसे अधिक चर्चा केजरीवाल की ही रहती है.

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